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रुख़ नज़र का कभी इधर न हुआ | शाही शायरी
ruKH nazar ka kabhi idhar na hua

ग़ज़ल

रुख़ नज़र का कभी इधर न हुआ

शंकर लाल शंकर

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रुख़ नज़र का कभी इधर न हुआ
दिल को हसरत रही जिगर न हुआ

हिज्र की शब तो जान-लेवा थी
दिन जुदाई का भी बसर न हुआ

उस के अल्फ़ाज़ दिल में चुभते हैं
कोई फ़िक़रा भी बे-असर न हुआ

बज़्म में सौ मक़ाम बदले हैं
रुख़ तुम्हारा कभी उधर न हुआ

वस्ल लिक्खा था मेरी क़िस्मत में
बे-कसी देखिए मगर न हुआ

हिज्र ने दम पे ये बना दी थी
हम से नाला भी रात-भर न हुआ

उम्र-भर उस की ताक ही में रहे
ध्यान अपना इधर-उधर न हुआ

उस के जल्वे से था जहाँ मा'मूर
ग़ैर का ज़िक्र भूल कर न हुआ

उस को आशिक़ न समझो ऐ 'शंकर'
जो फ़िदा उस के नाम पर न हुआ