रुख़ नज़र का कभी इधर न हुआ
दिल को हसरत रही जिगर न हुआ
हिज्र की शब तो जान-लेवा थी
दिन जुदाई का भी बसर न हुआ
उस के अल्फ़ाज़ दिल में चुभते हैं
कोई फ़िक़रा भी बे-असर न हुआ
बज़्म में सौ मक़ाम बदले हैं
रुख़ तुम्हारा कभी उधर न हुआ
वस्ल लिक्खा था मेरी क़िस्मत में
बे-कसी देखिए मगर न हुआ
हिज्र ने दम पे ये बना दी थी
हम से नाला भी रात-भर न हुआ
उम्र-भर उस की ताक ही में रहे
ध्यान अपना इधर-उधर न हुआ
उस के जल्वे से था जहाँ मा'मूर
ग़ैर का ज़िक्र भूल कर न हुआ
उस को आशिक़ न समझो ऐ 'शंकर'
जो फ़िदा उस के नाम पर न हुआ

ग़ज़ल
रुख़ नज़र का कभी इधर न हुआ
शंकर लाल शंकर