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रुख़-ए-बहार पे अक्स-ए-ख़िज़ाँ भी कितनी देर | शाही शायरी
ruKH-e-bahaar pe aks-e-KHizan bhi kitni der

ग़ज़ल

रुख़-ए-बहार पे अक्स-ए-ख़िज़ाँ भी कितनी देर

नस्र ग़ज़ाली

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रुख़-ए-बहार पे अक्स-ए-ख़िज़ाँ भी कितनी देर
मुख़ालिफ़त पे तुला आसमाँ भी कितनी देर

किसी का नाम किसी का निशाँ भी कितनी देर
हो जिस्म ख़ाक तो फिर उस्तुख़्वाँ भी कितनी देर

शिकस्त-ओ-रेख़्त की इस मंज़िल-ए-परेशाँ में
यक़ीं की उम्र भी कितनी गुमाँ भी कितनी देर

बँधा है अहद जो तेग़-ओ-गुलू के बीच तो फिर
लरज़ती काँपती नन्ही सी जाँ भी कितनी देर

निकल चलो है अभी सहल रास्ता यारो
कि मेहरबाँ है तो ये मेहरबाँ भी कितनी देर

बरा-ए-शब भी कुशादा है मेरा दरवाज़ा
कि सुब्ह आई तो ये मेहमाँ भी कितनी देर

सुख़न-वरी न सही मो'जिज़ा सही लेकिन
ये तर्ज़-ए-फ़िक्र ये हुस्न-ए-बयाँ भी कितनी देर