रोज़ कहाँ से कोई नया-पन अपने आप में लाएँगे
तुम भी तंग आ जाओगे इक दिन हम भी उक्ता जाएँगे
चढ़ता दरिया एक न इक दिन ख़ुद ही किनारे काटेगा
अपने हँसते चेहरे कितने तूफ़ानों को छुपाएँगे
आग पे चलते चलते अब तो ये एहसास भी खो बैठे
क्या होगा ज़ख़्मों का मुदावा दामन कैसे बचाएँगे
वो भी कोई हम ही सा मासूम गुनाहों का पुतला था
नाहक़ उस से लड़ बैठे थे अब मिल जाए मनाएँगे
इस जानिब हम उस जानिब तुम बीच में हाइल एक अलाव
कब तक हम तुम अपने अपने ख़्वाबों को झुलसाएँगे
सरमा की रुत काट के आने वाले परिंदो ये तो कहो
दूर देस को जाने वाले कब तक लौट के आएँगे
तेज़ हवाएँ आँखों में तो रेत दुखों की भर ही गईं
जलते लम्हे रफ़्ता रफ़्ता दिल को भी झुलसाएँगे
महफ़िल महफ़िल अपना तअल्लुक़ आज है इक मौज़ू-ए-सुख़न
कल तक तर्क-ए-तअल्लुक़ के भी अफ़्साने बन जाएँगे
ग़ज़ल
रोज़ कहाँ से कोई नया-पन अपने आप में लाएँगे
बशर नवाज़