रो रहा था मैं भरी बरसात थी
हाल क्या खुलता अँधेरी रात थी
मेरे नालों से है बरहम बाग़बाँ
ये ख़फ़ा होने की कोई बात थी
दिन नहीं देखा सिवा-ए-शाम-ए-हिज्र
ज़िंदगी-भर में यही इक रात थी
नाला-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ से बढ़ गई
वर्ना उल्फ़त इक ज़रा सी बात थी
हश्र तक लाया जहाँ से दर्द-ए-दिल
किस को देता क्या कोई सौग़ात थी
बंद कीं आँखें कि देखूँ ख़्वाब-ए-सुब्ह
खोल कर जब आँख देखा रात थी
ऐ सबा ग़ुंचों ने हँस कर क्या कहा
उन का क़िस्सा था कि मेरी बात थी
अल्लाह अल्लाह वहदत-ए-शाम-ए-फ़िराक़
एक मेरी एक उस की ज़ात थी
आप ही गिन दें मसाइब हिज्र के
यूँ तो कहने के लिए इक रात थी
हिचकियों से राज़-ए-उल्फ़त खुल गया
आ गई मुँह पर जो दिल में बात थी
शम-ए-मरक़द तुझ से शिकवा है मुझे
मेरे घर में भी अँधेरी रात थी
कुछ न कुछ 'साक़िब' ने पैदा कर लिया
ये ज़मीं तो दुश्मन-ए-अबयात थी

ग़ज़ल
रो रहा था मैं भरी बरसात थी
साक़िब लखनवी