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रिंद मंसूब बहर-कैफ़ रहा जाम के साथ | शाही शायरी
rind mansub bahar-kaif raha jam ke sath

ग़ज़ल

रिंद मंसूब बहर-कैफ़ रहा जाम के साथ

सय्यद मज़हर गिलानी

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रिंद मंसूब बहर-कैफ़ रहा जाम के साथ
ज़िक्र आ जाता है अपना भी तिरे नाम के साथ

दिल ने एहसास-ए-तबाही को पनपने न दिया
जाम गर्दिश में रहा गर्दिश-ए-अय्याम के साथ

ज़िंदगी को कभी तरतीब मयस्सर न हुई
रुख़ बदलते रहे हालात हर इक गाम के साथ

आप तो आप ज़माना है गुरेज़ाँ हम से
कौन रखता है तअ'ल्लुक़ किसी बदनाम के साथ

होश को फ़ुर्सत-ए-एहसास कहाँ बाक़ी थी
आँख चलती रही साक़ी की हर इक जाम के साथ

मश्ग़ला कोई नहीं बादा-गुसारी के बग़ैर
ऐसा मानूस हुआ दिल निगह-ओ-जाम के साथ

शामिल-ए-हाल रहीं उन की जफ़ाएँ 'मज़हर'
ज़िंदगी वर्ना गुज़रती मिरी आराम के साथ