रौशनी हस्ब-ए-ज़रूरत भी नहीं माँगते हम
रात से इतनी सुहुलत भी नहीं माँगते हम
दुश्मन-ए-शहर को आगे नहीं बढ़ने देते
और कोई तमग़ा-ए-जुरअत भी नहीं माँगते हम
संग को शीशा बनाने का हुनर जानते हैं
और इस काम की उजरत भी नहीं माँगते हम
किसी दीवार के साए में ठहर लेने दे
धूप से इतनी रिआ'यत भी नहीं माँगते हम
सारी दस्तारों पे धब्बे हैं लहू के 'अज़हर'
ऐसे कूफ़े में तो इज़्ज़त भी नहीं माँगते हम
ग़ज़ल
रौशनी हस्ब-ए-ज़रूरत भी नहीं माँगते हम
अज़हर अदीब