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रौशनी हस्ब-ए-ज़रूरत भी नहीं माँगते हम | शाही शायरी
raushni hasb-e-zarurat bhi nahin mangte hum

ग़ज़ल

रौशनी हस्ब-ए-ज़रूरत भी नहीं माँगते हम

अज़हर अदीब

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रौशनी हस्ब-ए-ज़रूरत भी नहीं माँगते हम
रात से इतनी सुहुलत भी नहीं माँगते हम

दुश्मन-ए-शहर को आगे नहीं बढ़ने देते
और कोई तमग़ा-ए-जुरअत भी नहीं माँगते हम

संग को शीशा बनाने का हुनर जानते हैं
और इस काम की उजरत भी नहीं माँगते हम

किसी दीवार के साए में ठहर लेने दे
धूप से इतनी रिआ'यत भी नहीं माँगते हम

सारी दस्तारों पे धब्बे हैं लहू के 'अज़हर'
ऐसे कूफ़े में तो इज़्ज़त भी नहीं माँगते हम