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रौशन सुकूत सब उसी शो'ला-बयाँ से है | शाही शायरी
raushan sukut sab usi shoala-bayan se hai

ग़ज़ल

रौशन सुकूत सब उसी शो'ला-बयाँ से है

सलीम शाहिद

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रौशन सुकूत सब उसी शो'ला-बयाँ से है
इस ख़ामुशी में दिल की तवक़्क़ो ज़बाँ से है

ख़ाशाक हैं वो बर्ग जो टूटे शजर से हों
हम से मुसाफ़िरों का भरम कारवाँ से है

एहसास-ए-गुमरही से मसाफ़त है जी का रोग
अब के थकन मुझे सफ़र-ए-राएगाँ से है

या आ के रुक गई है ख़त-ए-तीरगी पे आँख
है रौशनी तो टूटी हुई दरमियाँ से है

जब तक लहू सफ़र में है मैं रास्ते में हूँ
कश्ती हवा के साथ खुले बादबाँ से है

है हर बरहनगी का लबादा पर-ए-बदन
इस ख़ाक-दाँ का हुस्न ज़मान-ओ-मकाँ से है

सहरा-ए-बे-कनार ही तोड़े हवा का ज़ोर
ख़्वाहिश को ख़ार अब के दिल-ए-सख़्त-जाँ से है

हर-चंद मैं भी नक़्श-गर-ए-अहद-ए-हाल हूँ
तस्वीर ख़ाक-ए-रहगुज़र-ए-रफ़्तगाँ से है