EN اردو
रौशन हज़ार चंद हैं शम्स-ओ-क़मर से आप | शाही शायरी
raushan hazar chand hain shams-o-qamar se aap

ग़ज़ल

रौशन हज़ार चंद हैं शम्स-ओ-क़मर से आप

इमदाद अली बहर

;

रौशन हज़ार चंद हैं शम्स-ओ-क़मर से आप
ग़ाएब हैं पर निगाह की सूरत नज़र से आप

आँखें बिछाते फिरते हैं मुश्ताक़ राह में
क्या जानिए गुज़रते हैं किस रहगुज़र से आप

रोए कोई ग़रीब तो हँसना न चाहिए
वाक़िफ़ नहीं किसी के फ़ुग़ान-ए-असर से आप

काँटे भरे हैं ख़त में जो छूते नहीं इसे
इतना न हाथ खींचिए मेरी ख़बर से आप

रहगीर क्यूँ तड़पते हैं तशवीश थी मुझे
अब खुल गया कि झाँकते हैं चाक-ए-दर से आप

हम्माम ने तो और भी चमका दिया बदन
गोया नहा के निकले हैं आब-ए-गुहर से आप

लाएँगे राह पर ये रुख़-ओ-ज़ुल्फ़ एक दिन
देखेंगे शाम तक मिरा रस्ता सहर से आप

आँखों की तरह रोने लगें रौज़न‌‌‌‌-ए-मकाँ
पूछें हमारा हाल जो दीवार-ओ-दर से आप

मिर्रीख़-पन मिज़ाज में आ'ज़ा में नाज़ुकी
तेग़-ए-शुआ' बाँधिए अपनी कमर से आप

ऐ ज़ाहिदान-ए-ख़ुश्क ये ग़ैरत का है मक़ाम
आगाह आज तक नहीं ख़ालिक़ के घर से आप

ज़ाहिर है मुर्ग़-ए-क़िबला-नुमा भी गवाह है
काबे की सम्त पूछते हैं जानवर से आप

क्यूँकर मलक कहूँ कि मलक ख़ादिम आप के
हैं वो बशर कि मलती हैं ख़ैरुल-बशर से आप

जो बात आप की है मशिय्यत ख़ुदा की है
बे-शुबह मुख़्तलत हैं क़ज़ा-ओ-क़दर से आप

फिसला है मेरे आँसुओं में पाँव आप का
बंदे का सर उतारिए आज अपने सर से आप

ऐ 'बहर' रहम खाएगा वो रोने पर ज़रूर
धो रखिए अपने मुँह को ज़रा चश्म-ए-तर से आप