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रौशन है बज़्म-ए-शोला-रुख़ाँ देखते चलें | शाही शायरी
raushan hai bazm-e-shoala-ruKHan dekhte chalen

ग़ज़ल

रौशन है बज़्म-ए-शोला-रुख़ाँ देखते चलें

मख़दूम मुहिउद्दीन

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रौशन है बज़्म-ए-शोला-रुख़ाँ देखते चलें
इस में वो एक नूर-ए-जहाँ देखते चलें

वा हो रही है मय-कदा-ए-नीम-शब की आँख
अंगड़ाई ले रहा है जहाँ देखते चलें

सरगोशियों की रात है रुख़्सार ओ लब की रात
अब हो रही है रात जवाँ देखते चलें

दिल में उतर के सैर-ए-दिल-ए-रह-रवाँ करें
आहों में ढल के ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ देखते चलें

कैसे हैं ख़ानक़ाह में अर्बाब-ए-ख़ानक़ाह
किस हाल में है पीर-ए-मुग़ाँ देखते चलें

माज़ी की यादगार सही याद-ए-दिल तो है
तर्ज़-ए-नशात-ए-नौहा-गराँ देखते चलें

सब वसवसे हैं गर्द-ए-रह-ए-कारवाँ के साथ
आगे है मिशअलों का धुआँ देखते चलें

आँचल से उड़ रहे हैं फ़ज़ाओं में दूर दूर
शायद वही हो जान-ए-बुताँ देखते चलें

आ ही गए हैं रक़्स-गह-ए-गुल-रुख़ाँ में हम
कुछ रंग-ओ-बू का सैल-ए-रवाँ देखते चलें