रौनक़ें थीं जहाँ में क्या क्या कुछ
लोग थे रफ़्तगाँ में क्या क्या कुछ
अब की फ़स्ल-ए-बहार से पहले
रंग थे गुलिस्ताँ में क्या क्या कुछ
क्या कहूँ अब तुम्हें ख़िज़ाँ वालो
जल गया आशियाँ में क्या क्या कुछ
दिल तिरे बा'द सो गया वर्ना
शोर था इस मकाँ में क्या क्या कुछ
ग़ज़ल
रौनक़ें थीं जहाँ में क्या क्या कुछ
नासिर काज़मी