रस्तों पे न बैठो कि हवा तंग करेगी 
बिछड़े हुए लोगों की सदा तंग करेगी 
आसाब पे पहरे न बिठा सुब्ह-ए-सफ़र है 
टूटेगा बदन और क़बा तंग करेगी 
मत टूट के चाहो उसे आग़ाज़-ए-सफ़र में 
बिछड़ेगा तो इक एक अदा तंग करेगी 
इतना भी उसे याद न कर शाम-ए-ग़रीबाँ 
महकेगी फ़ज़ा बू-ए-हिना तंग करेगी 
ख़्वाबों के जज़ीरे से निकलना ही पड़ेगा 
जिस सम्त गए बू-ए-क़बा तंग करेगी 
पुर-हब्स शबों में अभी नींदें नहीं उतरीं 
नींद आई तो फिर बाद-ए-सबा तंग करेगी 
ख़ुद-सर है अगर वो तो मरासिम न बढ़ाओ 
ख़ुद्दार अगर हो तो अना तंग करेगी
        ग़ज़ल
रस्तों पे न बैठो कि हवा तंग करेगी
सफ़दर सलीम सियाल

