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रस्म ही शहर-ए-तमन्ना से वफ़ा की उठ जाए | शाही शायरी
rasm hi shahr-e-tamanna se wafa ki uTh jae

ग़ज़ल

रस्म ही शहर-ए-तमन्ना से वफ़ा की उठ जाए

एहतिशाम हुसैन

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रस्म ही शहर-ए-तमन्ना से वफ़ा की उठ जाए
इस तरह तो न कोई अहल-ए-मोहब्बत को सताए

वादी-ए-दिल में कई रातों से सन्नाटा है
काश बिजली ही तिरे अब्र-ए-सितम से गिर जाए

अपनी ज़िल्लत की सलीब आप लिए फिरना है
ये बड़ा बोझ मोहब्बत के सिवा कौन उठाए

बर-सर-ए-जंग हैं अनवार से ज़ुल्मात के देव
चाँद रातों के अँधेरे में कहीं डूब न जाए

ये समझ लो कि रग-ए-जाँ में है ज़हराब-ए-जुनूँ
जब निगाह-ए-करम-ओ-लुत्फ़ से भी दिल दुख जाए

दश्त-ए-उम्मीद में जलता है मिरे ख़ूँ का चराग़
राह मंज़िल की कहो मेरे सिवा कौन दिखाए

बारिश-ए-संग-ए-मलामत है ख़िरद का पथराव
अपने सर से हो जिसे प्यार मिरे साथ न आए