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रंज और रंज भी तन्हाई का | शाही शायरी
ranj aur ranj bhi tanhai ka

ग़ज़ल

रंज और रंज भी तन्हाई का

अल्ताफ़ हुसैन हाली

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रंज और रंज भी तन्हाई का
वक़्त पहुँचा मिरी रुस्वाई का

उम्र शायद न करे आज वफ़ा
काटना है शब-ए-तन्हाई का

तुम ने क्यूँ वस्ल में पहलू बदला
किस को दावा है शकेबाई का

एक दिन राह पे जा पहुँचे हम
शौक़ था बादिया-पैमाई का

उस से नादान ही बन कर मिलिए
कुछ इजारा नहीं दानाई का

सात पर्दों में नहीं ठहरती आँख
हौसला क्या है तमाशाई का

दरमियाँ पा-ए-नज़र है जब तक
हम को दावा नहीं बीनाई का

कुछ तो है क़द्र तमाशाई की
है जो ये शौक़ ख़ुद-आराई का

उस को छोड़ा तो है लेकिन ऐ दिल
मुझ को डर है तिरी ख़ुद-राई का

बज़्म-ए-दुश्मन में न जी से उतरा
पूछना क्या तिरी ज़ेबाई का

यही अंजाम था ऐ फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ
गुल ओ बुलबुल की शनासाई का

मदद ऐ जज़्बा-ए-तौफ़ीक़ कि याँ
हो चुका काम तवानाई का

मोहतसिब उज़्र बहुत हैं लेकिन
इज़्न हम को नहीं गोयाई का

होंगे 'हाली' से बहुत आवारा
घर अभी दूर है रुस्वाई का