रंगीनी-ए-हवस का वफ़ा नाम रख दिया
ख़ुद्दारी-ए-वफ़ा का जफ़ा नाम रख दिया
इंसान की जो बात समझ में न आ सकी
इंसाँ ने उस का हक़ की रज़ा नाम रख दिया
ख़ुद-ग़र्ज़ियों के साए में पाती है परवरिश
उल्फ़त को जिस का सिद्क़ ओ सफ़ा नाम रख दिया
बे-मेहरी-ए-हबीब का मुश्किल था ए'तिराफ़
यारों ने उस का नाज़ ओ अदा नाम रख दिया
फ़ितरत में आदमी की है मुबहम सा एक ख़ौफ़
उस ख़ौफ़ का किसी ने ख़ुदा नाम रख दिया
ये रूह क्या है जिस्म का अक्स-ए-लतीफ़ है
ये और बात है कि जुदा नाम रख दिया
मुफ़लिस को अहल-ए-ज़र ने भी क्या किया दिए फ़रेब
अपनी जफ़ा का हुक्म-ए-ख़ुदा नाम रख दिया
ग़ज़ल
रंगीनी-ए-हवस का वफ़ा नाम रख दिया
गोपाल मित्तल