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रंग लाया मिरा बे-बर्ग-ओ-नवा हो जाना | शाही शायरी
rang laya mera be-barg-o-nawa ho jaana

ग़ज़ल

रंग लाया मिरा बे-बर्ग-ओ-नवा हो जाना

शाज़ तमकनत

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रंग लाया मिरा बे-बर्ग-ओ-नवा हो जाना
इतना आसान न था उस का ख़ुदा हो जाना

कौन आवाज़ बरस बन के रहा महमिल-ए-नाज़
किस की क़िस्मत में है सहरा की सदा हो जाना

हश्र तक बे-गुनही नाज़ करेगी मुझ पर
वो मिरा तेरी निगाहों में बुरा हो जाना

मुझ पे वो वक़्त पड़ा है कि शिकायत कैसी
तुझ को लाज़िम था ब-हर-हाल ख़फ़ा हो जाना

मेरी तक़दीर पे तोहमत ही उठाई जाती
तुझ को ज़ेबा न था यूँ ख़ुद से जुदा हो जाना

आज तक याद है कैफ़िय्यत-ए-जाँ तेरे हुज़ूर
सर से पा तक वो मिरा दस्त-ए-दुआ' हो जाना

'शाज़' काँप उट्ठे मिरे तर्क-ए-मोहब्बत के क़दम
वो किसी पुर्सिश-ए-पिन्हाँ का बला हो जाना