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रखता हूँ मैं हक़ पर नज़र कोई कुछ कहो कोई कुछ कहो | शाही शायरी
rakhta hun main haq par nazar koi kuchh kaho koi kuchh kaho

ग़ज़ल

रखता हूँ मैं हक़ पर नज़र कोई कुछ कहो कोई कुछ कहो

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

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रखता हूँ मैं हक़ पर नज़र कोई कुछ कहो कोई कुछ कहो
हुशयार हूँ या बे-ख़बर कोई कुछ कहो कोई कुछ कहो

क़िस्मत मुक़द्दर बूझ कर ग़फ़लत में आ कर हिर्स से
फिर क्या है फिरना दर-ब-दर कोई कुछ कहो कोई कुछ कहो

जुज़ मासियत के कुछ नहीं है काम मुझ आसी के तईं
हर रोज़ ओ हर शाम ओ सहर कोई कुछ कहो कोई कुछ कहो

कुछ नेक ओ बद कहने का अब ख़तरा नहीं है ख़ल्क़ का
यकसाँ किया नफ़ ओ ज़रर कोई कुछ कहो कोई कुछ कहो

है चार दिन की ज़िंदगी ख़ुश रह के आख़िर के तईं
दुनिया से जाना है गुज़र कोई कुछ कहो कोई कुछ कहो

'हातिम' तवक़्क़ो छोड़ कर आलम में ता शाह ओ गदा
आ कर लगा हैदर के दर कोई कुछ कहो कोई कुछ कहो