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रहता है इक हर उस सा क़दमों के साथ साथ | शाही शायरी
rahta hai ek har us sa qadmon ke sath sath

ग़ज़ल

रहता है इक हर उस सा क़दमों के साथ साथ

मुनीर नियाज़ी

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रहता है इक हर उस सा क़दमों के साथ साथ
चलता है दश्त दश्त-नवर्दों के साथ साथ

हाथों का रब्त हर्फ़-ए-ख़फ़ी से अजीब है
हिलते हैं हाथ राज़ की बातों के साथ साथ

उठती हुई फ़सील-ए-फ़ुग़ाँ हद्द-ए-शहर पर
गलियों की चुप क़दीम मकानों के साथ साथ

सूरज की आब ज़हर है रंगों की आब को
है दूर तक बुख़ार सा बाग़ों के साथ साथ

उर्यां हुआ है माह शब-ए-अब्र-ओ-बाद में
जैसे सफ़ेद रौशनी ग़ारों के साथ साथ

आया हूँ मैं 'मुनीर' किसी काम के लिए
रहता है इक ख़याल सा ख़्वाबों के साथ साथ