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रहरव-ए-राह-ए-ख़राबात-ए-चमन | शाही शायरी
rahraw-e-rah-e-KHarabaat-e-chaman

ग़ज़ल

रहरव-ए-राह-ए-ख़राबात-ए-चमन

ज़ुल्फ़िकार नक़वी

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रहरव-ए-राह-ए-ख़राबात-ए-चमन
आ कि फिर इक बार हो जा कोहकन

तेशा-ए-अज़्म-ए-जवाँ दामन में रख
तू सवार-ए-शौक़-ए-सुल्तानी में फ़न

कोई साया ज़िंदगी का गर मिले
चाक-ए-गुल हो कर पहन लेना कफ़न

दीदनी है उस के हाथों में इनाँ
शहर में बाँटे है जो मग़रिब का धन

आ उठा फिर साग़र-ओ-मीना चलें
फिर से हो जाए वो पहले सा सुख़न

जिस में थी तह-दारी-ए-मंसूरियत
वो अनल-हक़ का कहाँ है बाँकपन