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रही दिल की दिल में ज़बाँ तक न पहुँची | शाही शायरी
rahi dil ki dil mein zaban tak na pahunchi

ग़ज़ल

रही दिल की दिल में ज़बाँ तक न पहुँची

शिव रतन लाल बर्क़ पूंछवी

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रही दिल की दिल में ज़बाँ तक न पहुँची
मोहब्बत की दुनिया बयाँ तक न पहुँची

बसेरा रहा उस का सेहन-ए-चमन में
मगर ये बहार आशियाँ तक न पहुँची

उन्हें ख़्वाब में भी न ध्यान आया मिरा
ये रूह-ए-हक़ीक़त गुमाँ तक न पहुँची

शब-ए-ग़म मिरा दिल था सूली पे लेकिन
तमन्ना सरिश्क-ए-रवाँ तक न पहुँची

बहारों का तो ज़िक्र ही क्या करूँ मैं
गुलिस्तान-ए-दिल में ख़िज़ाँ तक न पहुँची

तसव्वुर से आगे तख़य्युल से आगे
मिरे दिल की वहशत कहाँ तक न पहुँची

रही महव तौफ़-ए-चमन 'बर्क़' अक्सर
मगर वो मिरे आशियाँ तक न पहुँची