रही दिल की दिल में ज़बाँ तक न पहुँची
मोहब्बत की दुनिया बयाँ तक न पहुँची
बसेरा रहा उस का सेहन-ए-चमन में
मगर ये बहार आशियाँ तक न पहुँची
उन्हें ख़्वाब में भी न ध्यान आया मिरा
ये रूह-ए-हक़ीक़त गुमाँ तक न पहुँची
शब-ए-ग़म मिरा दिल था सूली पे लेकिन
तमन्ना सरिश्क-ए-रवाँ तक न पहुँची
बहारों का तो ज़िक्र ही क्या करूँ मैं
गुलिस्तान-ए-दिल में ख़िज़ाँ तक न पहुँची
तसव्वुर से आगे तख़य्युल से आगे
मिरे दिल की वहशत कहाँ तक न पहुँची
रही महव तौफ़-ए-चमन 'बर्क़' अक्सर
मगर वो मिरे आशियाँ तक न पहुँची
ग़ज़ल
रही दिल की दिल में ज़बाँ तक न पहुँची
शिव रतन लाल बर्क़ पूंछवी