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रह रह के ज़बानी कभी तहरीर से हम ने | शाही शायरी
rah rah ke zabani kabhi tahrir se humne

ग़ज़ल

रह रह के ज़बानी कभी तहरीर से हम ने

ज़फ़र इक़बाल

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रह रह के ज़बानी कभी तहरीर से हम ने
क़ाएल किया उस को इसी तदबीर से हम ने

किस सम्त लिए जाते हो और क्या है इरादा
पूछा न कभी अपने इनाँ-गीर से हम ने

दिल पर कोई क़ाबू न रहा जब तो किसी तौर
बाँधा है ये वहशी तिरी ज़ंजीर से हम ने

हर बार मदद के लिए औरों को पुकारा
या काम लिया नारा-ए-तकबीर से हम ने

बेहतर है कि अब काम कोई और किया कर
ये भी न कहा कातिब तक़दीर से हम ने

अपनी ही करामात दिखाते रहे सब को
सरक़ा न किया मोजज़ा-ए-'मीर' से हम ने

तख़रीब तो करते रहे सौ तरहा की लेकिन
ये काम किया जज़्बा-ए-तामीर से हम ने

अब देखिए क्या इस का निकलता है नतीजा
माथा है लगाया हुआ तासीर से हम ने

वो बाम-ए-तमाशा हुआ ग़ाएब तो 'ज़फ़र' आज
लटका लिया ख़ुद को किसी शहतीर से हम ने