रह रह के ज़बानी कभी तहरीर से हम ने
क़ाएल किया उस को इसी तदबीर से हम ने
किस सम्त लिए जाते हो और क्या है इरादा
पूछा न कभी अपने इनाँ-गीर से हम ने
दिल पर कोई क़ाबू न रहा जब तो किसी तौर
बाँधा है ये वहशी तिरी ज़ंजीर से हम ने
हर बार मदद के लिए औरों को पुकारा
या काम लिया नारा-ए-तकबीर से हम ने
बेहतर है कि अब काम कोई और किया कर
ये भी न कहा कातिब तक़दीर से हम ने
अपनी ही करामात दिखाते रहे सब को
सरक़ा न किया मोजज़ा-ए-'मीर' से हम ने
तख़रीब तो करते रहे सौ तरहा की लेकिन
ये काम किया जज़्बा-ए-तामीर से हम ने
अब देखिए क्या इस का निकलता है नतीजा
माथा है लगाया हुआ तासीर से हम ने
वो बाम-ए-तमाशा हुआ ग़ाएब तो 'ज़फ़र' आज
लटका लिया ख़ुद को किसी शहतीर से हम ने
ग़ज़ल
रह रह के ज़बानी कभी तहरीर से हम ने
ज़फ़र इक़बाल