रह-ए-हयात में जो लोग जावेदाँ निकले
वही वफ़ा-ओ-मोहब्बत के तर्जुमाँ निकले
अजीब सेहर का आलम था उस की महफ़िल में
ज़बाँ पे नाज़ था जिन को वो बे ज़बाँ निकले
वहाँ वहाँ पे वफ़ा-दारियों का ज़ोर बढ़ा
तुम्हारे चाहने वाले जहाँ जहाँ निकले
सफ़र की हसरतें निकलीं बहुत मिरी यारब
मगर जो दिल में थे अरमान वो कहाँ निकले
अज़ीज़ यूँ तो बहुत हैं अज़ीज़ क्या कहिए
कई अज़ीज़ मगर मुझ से बद-गुमाँ निकले
यक़ीं बहुत था मोहब्बत पे तुम को अपनी 'अदील'
यक़ीं के बदले वहाँ भी फ़क़त गुमाँ निकले
ग़ज़ल
रह-ए-हयात में जो लोग जावेदाँ निकले
अदील ज़ैदी