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रफ़्तगाँ में जहाँ के हम भी हैं | शाही शायरी
raftagan mein jahan ke hum bhi hain

ग़ज़ल

रफ़्तगाँ में जहाँ के हम भी हैं

मीर तक़ी मीर

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रफ़्तगाँ में जहाँ के हम भी हैं
साथ उस कारवाँ के हम भी हैं

शम्अ ही सर न दे गई बर्बाद
कुश्ता अपनी ज़बाँ के हम भी हैं

हम को मजनूँ को इश्क़ में मत बूझ
नंग उस ख़ानदाँ के हम भी हैं

जिस चमन-ज़ार का है तू गुल-ए-तर
बुलबुल इस गुलसिताँ के हम भी हैं

नहीं मजनूँ से दिल क़वी लेकिन
यार उस ना-तवाँ के हम भी हैं

बोसा मत दे किसू के दर पे नसीम
ख़ाक उस आस्ताँ के हम भी हैं

गो शब उस दर से दूर पहरों फिरें
पास तो पासबाँ के हम भी हैं

वजह-ए-बेगानगी नहीं मालूम
तुम जहाँ के हो वाँ के हम भी हैं

मर गए मर गए नहीं तो नहीं
ख़ाक से मुँह को ढाँके हम भी हैं

अपना शेवा नहीं कजी यूँ तो
यार जी टेढ़े बाँके हम भी हैं

इस सिरे की है पारसाई 'मीर'
मो'तक़िद उस जवाँ के हम भी हैं