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राज़ में रक्खेंगे हम तेरी क़सम ऐ नासेह | शाही शायरी
raaz mein rakkhenge hum teri qasam ai naseh

ग़ज़ल

राज़ में रक्खेंगे हम तेरी क़सम ऐ नासेह

शौक़ बहराइची

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राज़ में रक्खेंगे हम तेरी क़सम ऐ नासेह
ले निकाल अब वही गाँजे की चिलम ऐ नासेह

अब ख़ुदा के लिए रख हम पे करम ऐ नासेह
हैं परेशाँ तिरी बकवास से हम ऐ नासेह

झुर्रियाँ रुख़ की जो पैग़ाम-ए-क़ज़ा लाई हैं
कब तलक जाओगे तुम सू-ए-अदम ऐ नासेह

बादा-नोशों को न समझाने की कोशिश करना
वर्ना फिर होगा तिरा नाक में दम ऐ नासेह

ब'अद मुद्दत के मिला है तो चला-चल मिरे साथ
मय-कदा याँ से है बस चार क़दम ऐ नासेह

पूछ ले बीती है क्या रिंदों के हाथों इन पर
ये जो हैं तेरे चचा शैख़-ए-हरम ऐ नासेह

क्या हुआ ख़ैर तो है कैसी मुसीबत आई
किस ने मारा तुझे क्यूँ आँख है नम ऐ नासेह

भूल कर भी कभी मुँह उन के न लगना नादाँ
कुछ ख़बर है बड़े बेढब हैं नियम ऐ नासेह

तुझ को भी इश्क़-ए-बुताँ का मज़ा कुछ हो मालूम
तेरे पल्ले हों अगर दाम-ओ-दिरम ऐ नासेह

तू है क्या सारा जहाँ ख़ौफ़ से काँप उठता है
'शौक़' उठाते हैं जो शमशीर-ए-क़लम ऐ नासेह