राज़ जो सीना-ए-फ़ितरत में निहाँ होता है 
सब से पहले दिल-ए-शाइर पे अयाँ होता है 
सख़्त ख़ूँ-रेज़ जब आशोब-ए-जहाँ होता है 
नहीं मालूम ये इंसान कहाँ होता है 
जब कोई हादसा-ए-कौन-ओ-मकाँ होता है 
ज़र्रा ज़र्रा मेरी जानिब निगराँ होता है 
जो नज़र-कर्दा-ए-साहब-नज़राँ होता है 
उसी दीवाने के क़दमों पे जहाँ होता है 
जब कोई इश्क़ में बर्बाद-ए-जहाँ होता है 
मुझ को महसूस ख़ुद अपना ही ज़ियाँ होता है 
मुतज़लज़ल है अदब-गाह-ए-मोहब्बत की ज़मीं 
कोई देखे तो ये हंगामा कहाँ होता है 
कहीं ऐसा तो नहीं वो भी हो कोई आज़ार 
तुझ को जिस चीज़ पे राहत का गुमाँ होता है 
दिल ग़नी हो तो हर इक रंज भी दिल की राहत 
ज़ेहन मुफ़लिस हो तो हर सूद ज़ियाँ होता है 
इम्तिहाँ-गाह-ए-मोहब्बत में न रक्खे वो क़दम 
मौत के नाम से जिस को ख़फ़क़ाँ होता है 
यही वो मंज़िल-ए-दुश्वार है जिस मंज़िल में 
ख़त्म हर मरहला-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ होता है 
हर क़दम मारका-ए-कर्ब-ओ-बला है दरपेश 
हर नफ़्स सानेहा-ए-मर्ग-ए-जवाँ होता है 
नाज़ जिस ख़ाक-ए-वतन पर था मुझे आह 'जिगर' 
उसी जन्नत पे जहन्नम का गुमाँ होता है
 
        ग़ज़ल
राज़ जो सीना-ए-फ़ितरत में निहाँ होता है
जिगर मुरादाबादी

