राज़-ए-आलम से है शायद कि मिरा राज़ जुदा
मुझ से मिलने में है उस आँख का अंदाज़ जुदा
कोई ऐसी नफ़सों से भी हो दम-साज़ जुदा
दिल का अंदाज़ जुदा साज़ जुदा राज़ जुदा
बद-गुमाँ इश्क़ को सद वहम-ओ-यक़ीं के खटके
शोख़ी-ए-चश्म सुख़न-साज़ है ग़म्माज़ जुदा
यूँ ही क्या कम है तिरी याद कि दिल को छेड़ें
ज़ुल्फ़-ए-पुर-ख़म लब-ए-रंगीं निगह-ए-नाज़ जुदा
उक़्दा-ए-पेच-ओ-ख़म-ए-ज़ुल्फ़ का खुलना मा'लूम
राज़-ए-आलम से है ये सिलसिला-ए-राज़ जुदा
तंगी-ओ-वुसअत-ए-कौनैन में निस्बत कैसी
दर-ए-तौबा से दर-ए-मै-कदा हो बाज़ जुदा
आह-ओ-ज़ारी से कभी साज़-ए-मोहब्बत न छुड़ा
ग़म का अंदाज़ जुदा इश्क़ का अंदाज़ जुदा
हुस्न की शाह तलव्वुन उधर इक आफ़त-ए-जान
वाहिमे दिल के उधर तफ़रक़े पर्वाज़ जुदा
बर्क़-ए-आवाज़ जला दे ये नियस्तान-ए-जहाँ
साज़-ए-हस्ती से है साज़-ए-लब-ए-ए'जाज़ जुदा
बढ़ते भी जाते हैं सब अहल-ए-जहाँ सू-ए-अदम
उम्र-ए-रफ़्ता भी दिए जाती है आवाज़ जुदा
पै-ब-पै उड़ते हुए होश के अंदाज़ अलग
तर्ज़-ए-बर्क़-ए-निगहा-ए-हुस्न-ए-जुनूँ-साज़ जुदा
निगह-ए-नाज़ दिए जाती है पैग़ाम-ए-हयात
मौत से खेल रहे हैं तिरे जाँबाज़ जुदा
कुछ इशारे हैं उधर शोख़ी पिन्हाँ के 'फ़िराक़'
है सुकूत-ए-निगहा-ए-नाज़ सुख़न-साज़ जुदा

ग़ज़ल
राज़-ए-आलम से है शायद कि मिरा राज़ जुदा
फ़िराक़ गोरखपुरी