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रात सी नींद है महताब उतारा जाए | शाही शायरी
raat si nind hai mahtab utara jae

ग़ज़ल

रात सी नींद है महताब उतारा जाए

शाहिद ज़की

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रात सी नींद है महताब उतारा जाए
ऐ ख़ुदा मुझ में ज़र-ए-ख़्वाब उतारा जाए

क्या ज़रूरी है कि नाव को बचाने के लिए
हर मुसाफ़िर तह-ए-गिर्दाब उतारा जाए

रोज़ उतरता है समुंदर में सुलगता सूरज
कभी सहरा में भी तालाब उतारा जाए

सौ चराग़ों के जलाने से कहीं अच्छा है
इक सितारा सर-ए-मेहराब उतारा जाए

पत्थरों में भी कई पेच पड़े हैं 'शाहिद'
उन पे भी मौसम-ए-शादाब उतारा जाए