रात सी नींद है महताब उतारा जाए
ऐ ख़ुदा मुझ में ज़र-ए-ख़्वाब उतारा जाए
क्या ज़रूरी है कि नाव को बचाने के लिए
हर मुसाफ़िर तह-ए-गिर्दाब उतारा जाए
रोज़ उतरता है समुंदर में सुलगता सूरज
कभी सहरा में भी तालाब उतारा जाए
सौ चराग़ों के जलाने से कहीं अच्छा है
इक सितारा सर-ए-मेहराब उतारा जाए
पत्थरों में भी कई पेच पड़े हैं 'शाहिद'
उन पे भी मौसम-ए-शादाब उतारा जाए
ग़ज़ल
रात सी नींद है महताब उतारा जाए
शाहिद ज़की