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रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला | शाही शायरी
raat parde se zara munh jo kisu ka nikla

ग़ज़ल

रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
शोला समझा था उसे मैं प भभूका निकला

महर ओ मह उस की फबन देख के हैरान रहे
जब वरक़ यार की तस्वीर-ए-दो-रू का निकला

ये अदा देख के कितनों का हुआ काम तमाम
नीमचा कल जो टुक उस अरबदा-जू का निकला

मर गई सर्व पे जब हो के तसद्दुक़ क़ुमरी
उस से उस दम भी न तौक़ अपने गुलू का निकला

'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
तेरे दिल में तो बहुत काम रफ़ू का निकला