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रात इक शहर ने ताज़ा किए मंज़र अपने | शाही शायरी
raat ek shahr ne taza kiye manzar apne

ग़ज़ल

रात इक शहर ने ताज़ा किए मंज़र अपने

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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रात इक शहर ने ताज़ा किए मंज़र अपने
नींद आँखों से उड़ी खोल के शहपर अपने

तुम सर-ए-दश्त-ओ-चमन मुझ को कहाँ ढूँडते हो
मैं तो हर रुत में बदल देता हूँ पैकर अपने

यही वीराना बचा था तो ख़ुदा ने आख़िर
रख दिए दिल में मिरे सात समुंदर अपने

रोज़ वो शख़्स सदा दे के पलट जाता है
मैं भी रहता हूँ बहुत जिस्म से बाहर अपने

किस क़दर पास-ए-मुरव्वत है वफ़ादारों को
मेरे सीने में छुपा रक्खे हैं ख़ंजर अपने

कोई सुल्तान नहीं मेरे सिवा मेरा शरीक
मसनद-ए-ख़ाक पे बैठा हूँ बराबर अपने