रात आँखों में काटने वालो शाद रहो आबाद रहो
बार-ए-हिज्र उठाने वालो शाद रहो आबाद रहो
कच्ची उम्र में कल के दुखों से आज उलझना ठीक नहीं
पहला सावन भीगने वालो शाद रहो आबाद रहो
अब आए हो सारे दिए जब इक इक कर के बुझ भी गए
लेकिन लौट के आने वालो शाद रहो आबाद रहो
ख़ाना-बदोशी एक हुनर है रफ़्ता रफ़्ता आएगा
रंज-ए-मसाफ़त खींचने वालो शाद रहो आबाद रहो
एक दरीचे से दो आँखें रोज़ सदाएँ देती हैं
रात गए घर लौटने वालो शाद रहो आबाद रहो
हिज्र-ज़दों पर ख़ुद नहीं खुलता किस आलम में रहते हैं
हाल हमारा पूछने वालो शाद रहो आबाद रहो
ग़ज़ल
रात आँखों में काटने वालो शाद रहो आबाद रहो
ख़ालिद मोईन