रास आया है मुझे वहशत में मर जाना मिरा
वो मुझे रोए ये कह कर हाए दीवाना मिरा
ग़ैर को साक़ी ने जब भर कर दिया जाम-ए-शराब
आँसुओं से हो गया लबरेज़ पैमाना मिरा
मेरे रोने पर वो उन का मुस्कुराना बार बार
और बलाएँ ले के वो क़दमों पे गिर जाना मिरा
हज़रत-ए-नासेह की बातें मैं समझता ही नहीं
ना समझ हैं दिल-लगी समझे हैं समझाना मिरा
ऐ 'रसा' वो भी शरीक-ए-महफ़िल-ए-मातम हुए
ख़िज़र भी मरते हैं जिस पर वो है मर जाना मिरा

ग़ज़ल
रास आया है मुझे वहशत में मर जाना मिरा
रसा रामपुरी