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राहज़न आदमी रहनुमा आदमी | शाही शायरी
rahzan aadmi rahnuma aadmi

ग़ज़ल

राहज़न आदमी रहनुमा आदमी

साग़र सिद्दीक़ी

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राहज़न आदमी रहनुमा आदमी
बार-हा बन चुका है ख़ुदा आदमी

हाए तख़्लीक़ की कार-पर्दाज़ियाँ
ख़ाक सी चीज़ को कह दिया आदमी

खुल गए जन्नतों के वहाँ ज़ाइचे
दो क़दम झूम कर जब चला आदमी

ज़िंदगी ख़ानक़ाह-ए-शहूद-ओ-बक़ा
और लौह-ए-मज़ार-ए-फ़ना आदमी

सुब्ह-दम चाँद की रुख़्सती का समाँ
जिस तरह बहर में डूबता आदमी

कुछ फ़रिश्तों की तक़्दीस के वास्ते
सह गया आदमी की जफ़ा आदमी

गूँजती ही रहेगी फ़लक-दर-फ़लक
है मशिय्यत की ऐसी सदा आदमी

आस की मूरतें पूजते पूजते
एक तस्वीर सी बन गया आदमी