राहतों के धोके में इज़्तिराब ढूँडे हैं
हम ने अपनी ख़ातिर ही ख़ुद अज़ाब ढूँडे हैं
ये तो उस की आदत है रोज़ गुल मसलता है
आज भी मसलने को कुछ गुलाब ढूँडे हैं
रात आँधी आने पर उड़ गए थे ख़ेमे सब
ग़ाफ़िलों ने मुश्किल से कुछ तनाब ढूँडे हैं
तेरी हुक्मरानी भी ख़त्म होने वाली है
हम ने कुछ किताबों में इंक़लाब ढूँडे हैं
मेरे कुछ सवालों के तुम ने एक मुद्दत में
मसअलों से हट कर ही क्यूँ जवाब ढूँडे हैं
काले कारनामे और काला मुँह छुपाने को
कुछ सफ़ेद-पोशों ने कुछ नक़ाब ढूँडे हैं
देखिए 'ज़मीर' हम भी हैं अजब ही दीवाने
छोड़ कर हक़ीक़त को हम जवाब ढूँडे हैं
ग़ज़ल
राहतों के धोके में इज़्तिराब ढूँडे हैं
ज़मीर अतरौलवी