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राहत न मिल सकी मुझे मय-ख़ाना छोड़ कर | शाही शायरी
rahat na mil saki mujhe mai-KHana chhoD kar

ग़ज़ल

राहत न मिल सकी मुझे मय-ख़ाना छोड़ कर

जलील मानिकपूरी

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राहत न मिल सकी मुझे मय-ख़ाना छोड़ कर
गर्दिश में हूँ मैं गर्दिश-ए-पैमाना छोड़ कर

ख़ुम में सुबू में जाम में निय्यत लगी रही
मय-ख़ाने ही में हम रहे मय-ख़ाना छोड़ कर

आँखों को छोड़ जाऊँ इलाही मैं क्या करूँ
हटती नहीं नज़र रुख़-ए-जानाना छोड़ कर

आता है जी में साक़ी-ए-मह-वश पे बार बार
लब चूम लूँ तिरा लब-ए-पैमाना छोड़ कर

होती कहाँ है दिल से जुदा दिल की आरज़ू
जाता कहाँ है शम्अ को परवाना छोड़ कर

दो घूँट ने बढ़ा दिए रिंदों के हौसले
मीना ओ ख़ुम पे झुक पड़े पैमाना छोड़ कर

फिर बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार ने आ कर सितम किया
फिर चल दिया मुझे दिल-ए-दीवाना छोड़ कर

याद आई किस की आँख कि रिंद उठ खड़े हुए
पैमाना तोड़ कर मय ओ मय-ख़ाना छोड़ कर

दुनिया में आफ़ियत की जगह है यही 'जलील'
जाना कहीं न गोशा-ए-मय-ख़ाना छोड़ कर