राहत न मिल सकी मुझे मय-ख़ाना छोड़ कर
गर्दिश में हूँ मैं गर्दिश-ए-पैमाना छोड़ कर
ख़ुम में सुबू में जाम में निय्यत लगी रही
मय-ख़ाने ही में हम रहे मय-ख़ाना छोड़ कर
आँखों को छोड़ जाऊँ इलाही मैं क्या करूँ
हटती नहीं नज़र रुख़-ए-जानाना छोड़ कर
आता है जी में साक़ी-ए-मह-वश पे बार बार
लब चूम लूँ तिरा लब-ए-पैमाना छोड़ कर
होती कहाँ है दिल से जुदा दिल की आरज़ू
जाता कहाँ है शम्अ को परवाना छोड़ कर
दो घूँट ने बढ़ा दिए रिंदों के हौसले
मीना ओ ख़ुम पे झुक पड़े पैमाना छोड़ कर
फिर बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार ने आ कर सितम किया
फिर चल दिया मुझे दिल-ए-दीवाना छोड़ कर
याद आई किस की आँख कि रिंद उठ खड़े हुए
पैमाना तोड़ कर मय ओ मय-ख़ाना छोड़ कर
दुनिया में आफ़ियत की जगह है यही 'जलील'
जाना कहीं न गोशा-ए-मय-ख़ाना छोड़ कर
ग़ज़ल
राहत न मिल सकी मुझे मय-ख़ाना छोड़ कर
जलील मानिकपूरी