राह में शहर-ए-तरब याद आया
जो भुलाया था वो सब याद आया
जाने अब सुब्ह का आलम क्या हो
आज वो आख़िर-ए-शब याद आया
हम पे गुज़रा है वो लम्हा इक दिन
कुछ नहीं याद था रब याद आया
जब नहीं उम्र तो वो फूल खिला
कब का बछड़ा हुआ कब याद आया
रक़्स करने लगी तारों भरी शब
तू भी इस रात अजब याद आया
कितना इक़रार छुपा था इस में
तेरे इंकार का ढब याद आया
होश उड़ने लगे 'नासिर' की तरह
आज वो यार ग़ज़ब याद आया

ग़ज़ल
राह में शहर-ए-तरब याद आया
साबिर वसीम