राह-ए-वफ़ा में साया-ए-दीवार-ओ-दर भी है
लेकिन उसी पे जान से जाने का डर भी है
वक़्फ़ा है ज़िंदगी तो फ़क़त चंद रोज़ का
फिर शहर-ए-रंग-ओ-बू की तरफ़ इक सफ़र भी है
रौशन रखो चराग़ लहू से तमाम शब
हर रात के नसीब में आख़िर सहर भी है
किरदार देखने की रिवायत नहीं रही
अब आदमी ये देखता है माल-ओ-ज़र भी है
सुन तो रहे हो बात यूँ वाइज़ की ग़ौर से
लेकिन यक़ीन उस की किसी बात पर भी है
दामान-ए-गुल-रुख़ाँ की तमन्ना भी दोस्तो
कितना हसीन ख़्वाब है तुम को ख़बर भी है
मेरा बयान-ए-शौक़ भला राएगाँ हो क्यूँ
तहरीर में निहाँ मिरा ख़ून-ए-जिगर भी है
यूँ तो कोई अज़ीज़ हैं और दोस्त भी मगर
'शायान' ये बताओ कोई मो'तबर भी है
ग़ज़ल
राह-ए-वफ़ा में साया-ए-दीवार-ओ-दर भी है
शायान क़ुरैशी