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क़ुसूर सब है ये ना-मो'तबर अलामत का | शाही शायरी
qusur sab hai ye na-motabar alamat ka

ग़ज़ल

क़ुसूर सब है ये ना-मो'तबर अलामत का

क़मर संभली

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क़ुसूर सब है ये ना-मो'तबर अलामत का
उलझ के रह गया मफ़्हूम ही इबारत का

तुम्हारे सामने मंज़र कहाँ क़यामत का
अज़ाब सहते कभी काश तुम भी हिजरत का

क़लम के साथ ज़बाँ भी तराश लो मेरी
ये इम्तिहान भी ले लो मिरी सदाक़त का

कोई सुनाए तो आ कर हदीस-ए-शब-ज़दगाँ
अभी बुझा नहीं शो'ला मिरी समाअ'त का

मिरी हयात की वुसअ'त पे हो गया है मुहीत
वो एक पल जो अमीं है तिरी रिफ़ाक़त का

है एक दाना-ए-गंदुम की फ़ित्ना-सामानी
यही है नुक्ता-ए-आग़ाज़ अपनी हिजरत का

तबाहियों पे 'क़मर' चुप हैं लोग बस्ती के
है इंतिज़ार अभी शायद किसी करामत का