क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं
कितनी आज़ादी से हम अपनी हदों में क़ैद हैं
कौन सी आँखों में मेरे ख़्वाब रौशन हैं अभी
किस की नींदें हैं जो मेरे रतजगों में क़ैद हैं
शहर आबादी से ख़ाली हो गए ख़ुश्बू से फूल
और कितनी ख़्वाहिशें हैं जो दिलों में क़ैद हैं
पाँव में रिश्तों की ज़ंजीरें हैं दिल में ख़ौफ़ की
ऐसा लगता है कि हम अपने घरों में क़ैद हैं
ये ज़मीं यूँही सिकुड़ती जाएगी और एक दिन
फैल जाएँगे जो तूफ़ाँ साहिलों में क़ैद हैं
इस जज़ीरे पर अज़ल से ख़ाक उड़ती है हवा
मंज़िलों के भेद फिर भी रास्तों में क़ैद हैं
कौन ये पाताल से उभरा किनारे पर 'सलीम'
सर-फिरी मौजें अभी तक दाएरों में क़ैद हैं
ग़ज़ल
क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं
सलीम कौसर