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क़ुर्बान हो रही है मिरी जाँ इधर-उधर | शाही शायरी
qurban ho rahi hai meri jaan idhar-udhar

ग़ज़ल

क़ुर्बान हो रही है मिरी जाँ इधर-उधर

नसीम देहलवी

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क़ुर्बान हो रही है मिरी जाँ इधर-उधर
वाँ रह पे है जो ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ इधर-उधर

जाते हैं जब वो सू-ए-चमन सैर के लिए
होते हैं साथ आशिक़-ए-नालाँ इधर-उधर

हैं लख़्त-ए-दिल कहीं तो कहीं पारा-ए-जिगर
रहते हैं पेश-ए-चश्म-ए-गुलिस्ताँ इधर-उधर

हंगामा-ए-जुनूँ से जो दोनों हुए हैं चाक
दामन इधर-उधर है गरेबाँ इधर-उधर

ज़ुल्फ़ें छुटी हुई हैं जो चेहरे पे दो तरफ़
लहरा रहे हैं अफ़ई-ए-पेचाँ इधर-उधर

देखा उन्हों ने मुर्दा मुझे मैं ने अश्क-बार
आए नज़र हैं ख़्वाब-ए-परेशाँ इधर-उधर

या दुश्मनों से क़त्अ हो या मुझ से तर्क-ए-रब्त
क्यूँ दिल को कर रहे हो मिरी जाँ इधर-उधर

मुतरिब वहाँ हैं जम्अ' नवा-साज़ उस तरफ़
होते हैं कल से ऐश के सामाँ इधर-उधर

क्यूँ कर करूँ मैं बात चप-ओ-रास्त-ए-यार की
रहते हैं साथ साथ निगहबाँ इधर-उधर

वो अपनी हट पे हैं मुझे अपने कहे की ज़िद
समझा रहे हैं दोनों को इंसाँ इधर-उधर

आँखों पे साएबाँ हैं मज़े दीद के हों क्या
फैले हुए हैं दामन-ए-मिज़्गाँ इधर-उधर

वो बुत है मैं हूँ साहिब-ए-दीं बहर-ए-फ़ैसला
होते हैं जम्अ' गब्र-ओ-मुसलमाँ इधर-उधर

वो चाहते हैं आएँ मैं कहता हूँ आप जाऊँ
किस लुत्फ़ पर है रग़बत-ए-एहसाँ इधर-उधर

नालाँ वो अक़रबा से मैं हूँ मुख़बिरों से तंग
किस किस तरह के दिल में हैं अरमाँ इधर-उधर

हरजाई उन को कहते हैं बे-शर्म मुझ को लोग
उठते हैं रात-दिन यही तूफ़ाँ इधर-उधर

मंज़ूर है जो रंजिश-ए-साबिक़ का फ़ैसला
हर रोज़ जम्अ' होते हैं मेहमाँ इधर-उधर

हैं पहलुओं में दाग़ जो दोनों तरफ़ 'नसीम'
जल्वा दिखा रहे हैं गुलिस्ताँ इधर-उधर