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क़िस्सा-ए-शौक़ के उन्वान दिल-आराम कई | शाही शायरी
qissa-e-shauq ke unwan dil-aram kai

ग़ज़ल

क़िस्सा-ए-शौक़ के उन्वान दिल-आराम कई

शाज़ तमकनत

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क़िस्सा-ए-शौक़ के उन्वान दिल-आराम कई
मैं ने किस प्यार से रक्खे हैं तिरे नाम कई

टुकटुकी बाँध के बस दूर से तकते रहना
वस्ल में मिलते हैं अब हिज्र के आलाम कई

उक़्दा-ए-जाँ को है अब तक तिरे नाख़ुन से उमीद
किस को मा'लूम अधूरे हैं मिरे काम कई

दिल-ए-ज़िंदा से है ये गर्मी-ए-बाज़ार-ए-हयात
सर-ए-सौदा-ज़दा क़ाएम है तो इल्ज़ाम कई

वादी-ए-संग से अंजान गुज़रने वाले
ना-तराशीदा रहे जाते हैं असनाम कई

कुछ न कुछ कहती थी वो आँख दम-ए-रुख़्सत-ए-शौक़
ले के उट्ठा हूँ किसी बज़्म से औहाम कई

जैसे हर एक दरीचे में तिरा चेहरा हो
यूँ मिरे हाल पे हँसते हैं दर-ओ-बाम कई

'शाज़' अब उस की ख़मोशी को दुआ देना है
जिस ने भेजे थे मुझे नामा-ओ-पैग़ाम कई