क़िन्दील-ए-मह-ओ-मेहर का अफ़्लाक पे होना
कुछ इस से ज़ियादा है मिरा ख़ाक पे होना
हर सुब्ह निकलना किसी दीवार-ए-तरब से
हर शाम किसी मंज़िल-ए-ग़मनाक पे होना
या एक सितारे का गुज़रना किसी दर से
या एक प्याले का किसी चाक पे होना
लौ देती है तस्वीर निहाँ-ख़ाना-ए-दिल में
लाज़िम नहीं इस फूल का पोशाक पे होना
ले आएगा इक रोज़ गुल ओ बर्ग भी 'सरवत'
बाराँ का मुसलसल ख़स-ओ-ख़ाशाक पे होना
ग़ज़ल
क़िन्दील-ए-मह-ओ-मेहर का अफ़्लाक पे होना
सरवत हुसैन