क़ज़ा का तीर था कोई कमान से निकल गया
वो एक हर्फ़ जो मिरी ज़बान से निकल गया
बहुत ज़ियादा झुकना पड़ रहा था उस के साए में
सो एक दिन मैं उस के साएबान से निकल गया
अभी तो तेरे और तिरे अदू के दरमियान हूँ
अगर कभी मैं थक के दरमियान से निकल गया
मिरे अदू के ख़्वाब चकना-चूर हो के रह गए
मैं जस्त भर के दश्त-ए-इम्तिहान से निकल गया
तिरे कमाल-ए-फ़न का सिर्फ़ मैं ही क़द्र-दान हूँ
अगर मैं तेरी इस भरी दुकान से निकल गया
ग़ज़ल
क़ज़ा का तीर था कोई कमान से निकल गया
अज़हर अदीब