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क़ज़ा जो दे तो इलाही ज़रा बदल के मुझे | शाही शायरी
qaza jo de to ilahi zara badal ke mujhe

ग़ज़ल

क़ज़ा जो दे तो इलाही ज़रा बदल के मुझे

वारिस किरमानी

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क़ज़ा जो दे तो इलाही ज़रा बदल के मुझे
मिले ये जाम इन्ही अँखड़ियों में ढल के मुझे

मैं अपने दिल के समुंदर से तिश्ना-काम आया
पुकारती रहीं मौजें उछल उछल के मुझे

निगाह जिस के लिए बे-क़रार रहती थी
सज़ा मिली है उसी रौशनी से जल के मुझे

मैं रहज़नों को कहीं और देखता ही रहा
किसी ने लूट लिया पास से निकल के मुझे

कहाँ नुजूम कहाँ रास्ते की गर्द-ए-हक़ीर
अजीब वहम हुआ तेरे साथ चल के मुझे

अब एक साया-ए-बे-ख़ानुमाँ भी साथ में है
ये क्या मिला है तिरे शहर से निकल के मुझे

वही हक़ीक़त-ए-उम्र-ए-दराज़ बन के रहे
किसी ने ख़्वाब दिए थे जो चंद पल के मुझे

कोई भी जब हदफ़-ए-ख़ंजर-ए-अदा न मिला
वो दश्त-ए-ग़म से उठा ले गए मचल के मुझे