क़यामत का कोई हंगाम उभरे
उजाले डूब जाएँ शाम उभरे
किसी तलवार की क़ातिल ज़बाँ पर
लहू चहके हमारा नाम उभरे
गिरे गलियों के क़दमों पर अंधेरा
फ़ज़ा में रौशनी-ए-बाम उभरे
हैं सतह-ए-बहर पर मौजें परेशाँ
जो दिन डूबे तो कोई शाम उभरे
हज़ारों रंग-परचम सर-निगूँ हैं
वो हम ही थे कि बस गुम-नाम उभरे
हमारी इब्तिदा मिट्टी में इक राज़
हमारे वास्ते अंजाम उभरे

ग़ज़ल
क़यामत का कोई हंगाम उभरे
ज़काउद्दीन शायाँ