EN اردو
क़फ़स में अश्क-ए-हसरत पर मदार-ए-ज़िंदगानी है | शाही शायरी
qafas mein ashk-e-hasrat par madar-e-zindagani hai

ग़ज़ल

क़फ़स में अश्क-ए-हसरत पर मदार-ए-ज़िंदगानी है

जलील मानिकपूरी

;

क़फ़स में अश्क-ए-हसरत पर मदार-ए-ज़िंदगानी है
यही दाने का दाना है यही पानी का पानी है

मिले थे आज बरसों में मगर अल्लाह की क़ुदरत
वही सूरत वही रंगत वही जोश-ए-जवानी है

हमें वो जान भी लेंगे हमें पहचान भी लेंगे
उतर जाएगा सब नश्शा अभी चढ़ती जवानी है

कलेजे से लगा रख्खूँ न क्यूँ दर्द-ए-जुदाई को
यही तो इक दिल-ए-मरहूम की बाक़ी निशानी है

ये सच है या ग़लत हम ने सुना है मरने वालों से
तिरे ख़ंजर में क़ातिल चश्मा-ए-हैवाँ का पानी है

बताए जाते हैं औसाफ़ वो अपनी अदाओं के
ये शान-ए-दिल-रुबाई है ये तर्ज़-ए-जाँ-सतानी है

यहाँ क्या जानिए किस तरह देखा है तसव्वुर में
वहाँ अब तक वही पर्दे के अंदर लन-तरानी है

करें तस्ख़ीर आओ मिल के हम तुम दोनों आलम को
इधर जादू-निगाही है उधर जादू-बयानी है

'जलील' इक शेर भी ख़ाली न पाया दर्द ओ हसरत से
ग़ज़ल-ख़्वानी नहीं ये दर-हक़ीक़त नौहा-ख़्वानी है