क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
पर क्या करें कि अब के सफ़र ही अजीब था
निकले अगर तो चाँद दरीचे में रुक भी जाए
इस शहर-ए-बे-चराग़ में किस का नसीब था
आँधी ने उन रुतों को भी बे-कार कर दिया
जिन का कभी हुमा सा परिंदा नसीब था
कुछ अपने-आप से ही उसे कश्मकश न थी
मुझ में भी कोई शख़्स उसी का रक़ीब था
पूछा किसी ने मोल तो हैरान रह गया
अपनी निगाह में कोई कितना ग़रीब था
मक़्तल से आने वाली हवा को भी कब मिला
ऐसा कोई दरीचा कि जो बे-सलीब था
ग़ज़ल
क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
परवीन शाकिर