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क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था | शाही शायरी
qadmon mein bhi takan thi ghar bhi qarib tha

ग़ज़ल

क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था

परवीन शाकिर

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क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
पर क्या करें कि अब के सफ़र ही अजीब था

निकले अगर तो चाँद दरीचे में रुक भी जाए
इस शहर-ए-बे-चराग़ में किस का नसीब था

आँधी ने उन रुतों को भी बे-कार कर दिया
जिन का कभी हुमा सा परिंदा नसीब था

कुछ अपने-आप से ही उसे कश्मकश न थी
मुझ में भी कोई शख़्स उसी का रक़ीब था

पूछा किसी ने मोल तो हैरान रह गया
अपनी निगाह में कोई कितना ग़रीब था

मक़्तल से आने वाली हवा को भी कब मिला
ऐसा कोई दरीचा कि जो बे-सलीब था