क़दम उठे तो गली से गली निकलती रही
नज़र दिए की तरह चौखटों पे जलती रही
कुछ ऐसी तेज़ न थी उस के इंतिज़ार की आँच
ये ज़िंदगी ही मिरी बर्फ़ थी पिघलती रही
सरों के फूल सर-ए-नोक-ए-नेज़ा हँसते रहे
ये फ़स्ल सूखी हुई टहनियों पे फलती रही
हथेलियों ने बचाया बहुत चराग़ों को
मगर हवा ही अजब ज़ाविए बदलती रही
दयार-ए-दिल में कभी सुब्ह का गजर न बजा
बस एक दर्द की शब सारी उम्र ढलती रही
मैं अपने वक़्त से आगे निकल गया होता
मगर ज़मीं भी मिरे साथ साथ चलती रही
ग़ज़ल
क़दम उठे तो गली से गली निकलती रही
इरफ़ान सिद्दीक़ी