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क़दम उठे तो गली से गली निकलती रही | शाही शायरी
qadam uThe to gali se gali nikalti rahi

ग़ज़ल

क़दम उठे तो गली से गली निकलती रही

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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क़दम उठे तो गली से गली निकलती रही
नज़र दिए की तरह चौखटों पे जलती रही

कुछ ऐसी तेज़ न थी उस के इंतिज़ार की आँच
ये ज़िंदगी ही मिरी बर्फ़ थी पिघलती रही

सरों के फूल सर-ए-नोक-ए-नेज़ा हँसते रहे
ये फ़स्ल सूखी हुई टहनियों पे फलती रही

हथेलियों ने बचाया बहुत चराग़ों को
मगर हवा ही अजब ज़ाविए बदलती रही

दयार-ए-दिल में कभी सुब्ह का गजर न बजा
बस एक दर्द की शब सारी उम्र ढलती रही

मैं अपने वक़्त से आगे निकल गया होता
मगर ज़मीं भी मिरे साथ साथ चलती रही