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क़ातिल के कूचे में हमा-तन जाऊँ बन के पाँव | शाही शायरी
qatil ke kuche mein hama-tan jaun ban ke panw

ग़ज़ल

क़ातिल के कूचे में हमा-तन जाऊँ बन के पाँव

मुंशी देबी प्रसाद सहर बदायुनी

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क़ातिल के कूचे में हमा-तन जाऊँ बन के पाँव
मर कर ही ताकि सो तो ज़रा पाऊँ तन के पावँ

क्यूँकर रखूँ मैं सैर को अंदर चमन के पाँव
इक उम्र से तो हो रहे ख़ूगर हैं बन के पाँव

भारी हैं नाज़ुकी से जो मेहंदी में सन के पाँव
कहते हैं कर दिए मिरे क्यूँ लाख मन के पाँव

क्या साथ मेरा दश्त-नवर्दी में कर सके
दो-चार चौकड़ी में गए थक हिरन के पाँव

हाथों को है हवा से गरेबाँ-दरी हनूज़
सहरा-तलब हैं मर के भी अंदर कफ़न के पाँव

आना है देर देर तो जाना है जल्द जल्द
रफ़तन के और हैं तिरे और आमदन के पाँव

सदमे से हाथ के कहीं गट्टा उतर न जाए
क्यूँकर दबाऊँ उस बुत-ए-नाज़ुक-बदन के पाँव

ऐ दिल तू देख उस की सर-ए-ज़ुल्फ़ में न जा
नादाँ है सर पे जो रखे काले के फन के पाँव

कुछ आज ये भी आता है रिंदो पिए हुए
पड़ते हैं बहके बहके जो शेख़-ए-ज़मन के पाँव

पहुँचा है अब तो 'सेहर' कलाम अपना दूर दूर
शोहरत से लग गए हैं हमारे सुख़न के पाँव