EN اردو
क़ासिद तिरे बार बार आए | शाही शायरी
qasid tere bar bar aae

ग़ज़ल

क़ासिद तिरे बार बार आए

सख़ी लख़नवी

;

क़ासिद तिरे बार बार आए
एक हफ़्ते में तीन चार आए

क़ातिल पे जो सर को वार आए
बार-ए-तन-ए-ज़ार उतार आए

आशुफ़्तगी हो नसीब-ए-दुश्मन
तुम ज़ुल्फ़ न क्यूँ सँवार आए

अब की जो न छूटे फ़स्ल-ए-गुल में
फिर देखिए कब बहार आए

दिल में नहीं उस की कुछ कुदूरत
आईना पे क्या ग़ुबार आए

झोली रही अपनी गुल से ख़ाली
दामन में उलझ के ख़ार आए

गुल खाना मिरा तप-ए-अलम से
बुलबुल जो सुने बुख़ार आए

आया जो 'सख़ी' मह-ए-मोहर्रम
हम बज़्म में अश्क-बार आए