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क़ासिद ख़िलाफ़-ए-ख़त कहीं तेरा बयाँ न हो | शाही शायरी
qasid KHilaf-e-KHat kahin tera bayan na ho

ग़ज़ल

क़ासिद ख़िलाफ़-ए-ख़त कहीं तेरा बयाँ न हो

हफ़ीज़ जौनपुरी

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क़ासिद ख़िलाफ़-ए-ख़त कहीं तेरा बयाँ न हो
करना सँभल के बात कि वो बद-गुमाँ न हो

नालों का मेरे आठ-पहर इम्तिहाँ न हो
डरते नहीं कि एक ज़मीं आसमाँ न हो

तोहमत हो भूल-चूक की पैग़ाम्बर के सर
शिकवों का लुत्फ़ क्या जो कोई दरमियाँ न हो

नालों से लड़ रही है सदा-ए-जरस जो आज
गुम-कर्दा-राह कोई पस-ए-कारवाँ न हो

सौ सुन के एक भी न कहें हम बजा दुरुस्त
उस से ये कहिए आए कि जिस के ज़बाँ न हो

अब तक वो याद हैं मिरी अगली इनायतें
बस बस हमारे हाल पे तू मेहरबाँ न हो

छूटी तिरी गली तो ये मुझ को यक़ीं हुआ
जन्नत है वो जहाँ सितम-ए-आसमाँ न हो

करते हैं एक एक से मेरी शिकायतें
सिर्फ़ इस ख़याल से कि कोई बद-गुमाँ न हो

ये क्या कि सर चढ़ा के नज़र से गिरा दिया
अब मेहरबाँ हुए हो तो ना-मेहरबाँ न हो

दिल को कहाँ है सदमा-ए-रश्क-ए-अदु की ताब
सौ इम्तिहाँ हैं और ये इक इम्तिहाँ न हो

मरना फड़क फड़क के गवारा सही मगर
इतना तो हो क़फ़स में ग़म-ए-आशियाँ न हो

का'बे में बुत-कदे में ख़राबात में रहे
इंसाँ वो है कहीं जो किसी पर गराँ न हो

अपनी भी सर-गुज़श्त है इक-तरफ़ा दास्ताँ
बरसों सुनो तो निस्फ़ ये क़िस्सा बयाँ न हो

दिल से है दिल को राह ये सच है अगर 'हफ़ीज़'
मुमकिन नहीं ख़याल यहाँ हो वहाँ न हो