EN اردو
क़ासिद आया मगर जवाब नहीं | शाही शायरी
qasid aaya magar jawab nahin

ग़ज़ल

क़ासिद आया मगर जवाब नहीं

जलील मानिकपूरी

;

क़ासिद आया मगर जवाब नहीं
मेरे लिखे का भी जवाब नहीं

ख़ुम तो है साक़िया शराब नहीं
आसमाँ है और आफ़्ताब नहीं

बन के बुत सब वो कह गुज़रते हैं
बे-दहानी तिरा जवाब नहीं

सुब्ह होते वो घर गए अपने
अब निकलने का आफ़्ताब नहीं

नूर वो है कि कुछ नहीं खुलता
है तिरे रुख़ पे या नक़ाब नहीं

तूर के ज़िक्र पर चमक उठ्ठे
बात की इन बुतों को ताब नहीं

गरचे दुनिया है आईना-ख़ाना
मेरा सानी तिरा जवाब नहीं

बन गया है नक़ाब चेहरे की
कि उतरता कभी इताब नहीं

रुख़ से अफ़्शाँ छुड़ा के कहते हैं
आज तारों में माहताब नहीं

चाँद को रात क्या छुपाएगी
ज़ुल्फ़ रुख़ के लिए नक़ाब नहीं

चढ़ के उतरेंगी तेवरियाँ सौ बार
कुछ ये चढ़ता हुआ शबाब नहीं

कुछ नहीं मेरे बे-शुमार गुनाह
वो अगर बरसर-ए-हिसाब नहीं

ढल के कहता है चौदहवीं का चाँद
एक शब से सिवा शबाब नहीं

मय तो ढल कर रहेगी ऐ साक़ी
कुछ ये माशूक़ का शबाब नहीं

मय-कदा भी बहिश्त है लेकिन
मुफ़्त मिलती यहाँ शराब नहीं

सुन के ये पर्दे से निकल आए
तेरी तस्वीर का जवाब नहीं

आह को सुन के मुँह छुपाते हो
एक झोंके की भी नक़ाब नहीं

ख़त्म होती नहीं हवस दिल की
एक तूफ़ान है शबाब नहीं

दिल जले जब मज़ा है रोने का
मय है पानी अगर कबाब नहीं

इश्क़ में है 'जलील' ला-सानी
हुस्न में यार का जवाब नहीं